जिस धर्म को छोड़ देने से कोई परेशानी न हो उसे धर्म नहीं कहते हैं। एक धर्म वाला जिसे धर्म कहता है दूसरे धर्म वाला उसे ही अधर्म कहता है। जैसे किसी में मूर्ति पूजा धर्म है तो किसी में मूर्ति पूजा अधर्म है। किसी में हिंसा (कुर्बानी) धर्म है तो किसी में हिंसा अधर्म है। किसी में छुआछूत ऊँच-नीच भेद भाव धर्म है तो किसी में यह अधर्म है। धर्म इन्सान को लड़ाता ही नहीं खून खराबा तक करवाता है। धर्म का प्रारम्भ मानव के जीविकोत्पादन करने एवं बाद में समाज बनाकर रहने तथा भाषा के कुछ विकसित हो जाने पर हुआ और उसका पूरा विकास तो दासता युग सामान्ती युग के समय प्रभु वर्ग ने किया। वस्तुतः धर्म की सारी कल्पना, उसके देवताओं का निर्माण उसी दासता तथा सामान्ती युग के मानव समाज की नकल है। हकीकत तो यह है कि धर्म शोषण का हथियार रहा है। धर्म ने सदैव सामान्त वर्ग का साथ दिया है। छुआछूत, धर्म व्यवस्था, मजहब परस्ती, कठमुल्लापन, सम्प्रदायवाद धर्म की सन्तानें हैं। धर्म देश में वैज्ञानिक औद्योगिक टेक्नालाजी का विरोधी है क्योंकि इनका विकास हो जाने पर यह धर्म अपने आप चकनाचूर हो जायेगा। यदि पूँजीपतियों के द्वारा मन्दिर बनाने की जगह बड़ी बड़ी फैक्टरियाँ खोली गई होती तो सम्पूर्ण मानव जाति के लोग उन फैक्टरियों में एकसाथ रहते एकसाथ रहने से छुआछूत, जातिवाद मजहबपरस्ती, एवं साम्प्रदायिकता समाप्त होती रहती। यह सभी जानते हैं कि विज्ञान आदमी के अन्धविश्वास पर चोट करता हैओर टेक्नालाजी आदमी-आदमी के बीच की दूरी कम करती है। यदि ऐसा हो जाता तो शोषक वर्ग जो धर्म की आड़ में फोकट में ऐसो आराम कर रहा है, उसे भी शोषित वर्ग के साथ श्रम करना पड़ता, जिससे छुआछूत और ऊँच-नीच की भावना समाप्त होती।
धर्म मानव को सच्चरित्र नहीं दुश्चरित्र बनाने की शिक्षा प्रदान करता है। यहाँ जुआँ खेलना भी धर्म समझता है। इसी के तहत धर्मराज कहे जाने वाले युधिश्ठिर जुआं खेलते हैं तो अपनी पत्नी सहित पूरे राजपाट को हार जाते हैं। इसी धर्म के कारण ही देवताओं का राजा इन्द्र स्वर्ग से मृत्युलोक में आकर गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या से छल करके उसके सतीत्व को नष्ट करने के बावजूद भी देवराज बना रहा और अन्जान में भूल करने वाली अहिल्या को पत्थर ही बनना पड़ा। धर्म के कारण ही द्रौपदी को भरी सभा में दुःशासन नग्न करता रहा और द्रौपदी के पांचों पति ही नहीं भीष्म पितामह जैसे ब्रह्मचारी और गुरू द्रोणाचार्य भी मौन रहे। मानवता के नाते क्या कोई भरी सभा में किसी स्त्री को नंगी कर सकता है? चाहे वह अपनी ही स्त्री क्यों न हो ? चूँकि उधार धर्म मंा स्त्री को इन्सान नहीं वस्तु समझा गया तभी तो उसे जुयें के दांव पर लगाया गया। जबकि स्त्री वस्तु नहीं इन्सान है। इन्सान को इन्सान जुयें के दांव पर लगये यह कैसा धर्म है। द्रोपदी की इच्छा-अनिच्छा का ध्यान किये बिना द्रोपदी को केक की तरह पांचों भाईयों में बाँट लेना, गर्भवती सीता को घर से निकालना, क्या सीता को राजमहल के अलावा कहीं स्थान देकर बसाया नहीं जा सकता था ? 80 वर्ष की शहबानों को तलाक देना, चोरी, डाका, कत्ल आदि नहीं तपस्या करते हुए शूद्र शम्बूक की हत्या को धर्म संगत करार देना धर्म की करामात है।
धर्म के अगुवा लोग अपने धन्धें को धन्धा न कहकर धर्म की संज्ञा प्रदान की दिये हैं। जिससे साधारण जनता धर्म की आड़ में चल रहे उनके धन्धे को न समझकर उनके द्वारा फैलाये गये विभिन्न संस्कारों तीर्थ सेवन, मूर्ति पूजा, कथा भागवत, आदि धन कमाने के माध्यमों को धर्म समझकर उनके शोषण में फंस जाते है और अपनी गाढ़ी कमाई शोषक को देकर धनहीन होकर दुःख भोगते है।
शोषितों को गुमराह करके उनकी कमाई सें मौज उड़ाने वाले शाशक वर्ग के लोग शोषितों का शोषण तो करते है, लेकिन वे बहुत होशियार है। कहीं शोषित वर्ग उनकी चालाकी न समझ जाये इसलिए वे अपने और शोषितों के बीच में ईश्वर भगवान या देवता रूपी दीवार खड़ी कर लिये हैं। जिसके आड़ में शोषक वर्ग शोषितों (पिछड़े एवं अनुसूचितों) का शिकार करते है। आज भी दलित एवं पिछड़े अपने शोषण को नहीं समझ पा रहे है।
कितने आश्चर्य की बात है कि एक हिन्दू एक हिन्दू का विकास नहीं देखना चाहता। पिछड़े वर्ग के लोगों में जब दोस्त और दुश्मन की पहचान होने लगी तो वे शोषकों से अलग होने को सोंचने लगे तब शोषक वर्ग के लोगों ने सोंचा कि 52 प्रतिशत आबादी वाले पिछड़े वर्ग अगर इकट्ठा हो गया तो शासन प्रशासन पर पूरा अधिकार कर लेंगे तब मंडल आयोग से ध्यान हटाने के लिए पिछड़ों को अयोध्या के राम की घुट्टी पिलाकर गुमराह कर दिया।
यह धर्म अज्ञान का पुत्र है और दुनिया के मनुष्यों में ईष्या नफरत दुख दर्द फैलाना इनका पेशा है। मनुष्य को मनुष्य से लड़वाना खून खराबा दमन शोषण उत्पीड़न और घृणा धर्म की नीति है।
जिस प्रकार मछलियों को पकड़ने के लिए जाल आवश्यक है। उसी प्रकार शोषितों (पिछड़ों) एवं दलितों (अछूतों) को पकड़कर गुलाम (दास) बनाने के लिए धर्म का जाल आवश्यक है। इस धर्म रूपी जाल में फंसकर शोषक वर्ग के लोग, शोषित वर्ग के लोगों को ईश्वर का नहीं ईश्वर के नाम पर अपना दास (गुलाम) बना लेते है। शोषितों को धर्म के नाम पर ऐसा गुमराह कर देते है जिन्हें सही बात बताने वाला दुश्मन प्रतीत होता है। शोषित वर्ग के लोग जब तक इन शोषकों की चालाकी नहीं समझेगा उनकी उन्नति किसी भी क्षेत्र में सम्भव नहीं हो सकती।
अशिक्षा के कारण धर्म की जड़ इतनी गहरी चली गयी है कि इसे एक झटके में उखाड़ने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
शोषक वर्ग पहले धर्म की कलई खोलने वालों को नास्तिक, राक्षस, दैत्य, दानव, निशाचर आदि कहकर उनसे सर्व साधारण जनता का ध्यान हटाने की कोशिश करते हैं ।
धर्म के तहत देवता पत्थर (मूर्ति)में हो सकता है, पानी (गंगा) में हो सकता है, वृक्ष (पीपल) में हो सकता है लेकिन वह महान आश्चर्य है कि वह मानव में नही हो सकता ।
धर्म को सर्वापरि मान्यता देने के लिये विभिन्न प्रकार के काल्पनिक कथाओें से ओत-प्रोत तमाम पुराण ग्रन्थों की रचना करके सर्वसाधारण जनता को गुमराह कर दिया ।
आज जिन देवताओं के सहारे शोषित एवं दलित वर्ग के लोग स्वर्ग में सर्व सुख की कामना करते है यह सत्य नहीं है जो देवता न अपना पेट भर सकते हैं न अपना घर बना सकतें वे दूसरों को क्या देगें ?
शोषकों ने अपने ही वर्ग के कुछ ऐसे लोंगो का संगठन तैयार किया जिन्हें ऋषि,मुनि,महात्मा,साधु और सन्यासी कहा जाता था । इन लोगों का मुख्य धंधा शोषित को गुमराह करना है। जिससे शोषितों का दिल एवं दिमाग भौतिकता की तरफ से हटकर काल्पनिक स्वर्ग, नरक, मोक्ष, की तरफ मुड़कर बेकार हो जाय। इसमें वे पूर्ण सफल रहे ।
तुलसी की या रुद्राक्ष की एक कंठी पहनना शूद्रों गुलामों की पहिचान है। शोषक वर्ग के लोग तो यज्ञोपवीत या माला पहना करते हैं, वे कभी भी एक गुरिया की कंठी नही पहनते।
विश्व के सभी धर्माें के धार्मिक ग्रन्थों में कथाओं की भरमार है ।
समाज को ऊँचा उठाने के लिये धर्म कथाओं के झूँठे प्रचार को रोका जाय । किसी भी कथा को सुनकर तर्क की कसौटी पर बिना कसे सत्य न माना जाय। उसे गप्प समझकर मनोरंजन भले कर लें । धार्मिक कथाओं के विषय में जो मिथ्या प्रचार समाज में निजी स्वार्थपूर्ति के लिये एक वर्ग विशेष ने फैला रखा है, उसे प्रबुद्ध वर्ग अपनी तर्क शक्ति का प्रयोग करके दूध का दूध पानी का पानी कर दे, तभी समाज को उन्नत बनाया जा सकता है। मनुवाद ने मानववाद पर डकैती डालने के लिये काल्पनिक ईश्वर को डकैतों का सरदार बनाया । अगर यह सुरक्षित रहा तो पूरा गैंग (मनुवाद) सुरक्षित रहेगा इसलिये अगर कोई ईश्वर देववाद की परख तर्क की कसौटी पर करता है तो ईश्वर या देव नहीं समस्त मनुवादी लोग हाय तोबा मचाते है क्योंकि तर्क की कसौटी पर ईश्वर या देव का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। जब ईश्वर का अस्तित्व ही समाप्त हो गया तो मनुवाद का अस्तित्व खाक में मिल जाएगा जो धर्म का बल है ।मनुवाद में अमरबेल की तरह जड़ नही हैं यह अमर बेल की तरह दूसरों का शोषण करते हुए हरा-भरा दिखाई पड़ता है। जब तक शोषण के साधन मिलते रहेंगे मनुवाद समाप्त नही होगा । अतः मनुवाद से छुटकारा पाने के लिये समाज में व्याप्त देवी देवताओं को तर्क की कसौटी पर रखना होगा। तभी देवी देवताओं के साथ ही मनुवाद से छुटकारा मिल सकेगा।